शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |



ग़म को बांटे ख़ुशी समझकर ऐसा कोई यार कहाँ है,
रात - रात जग करे जो चौकी ऐसा पहरेदार कहाँ है,
मै कैसी उलझन में उलझा समझ में कुछ भी आये ना,
खड़ा हूँ घर के सामने लेकिन पूछूं घर का द्वार कहाँ हैं |


मेरी जीवन रेखा देखो इसका आखिर पार कहाँ है,
ग़म के ढेर हजारों हैं पर खुशियों का अम्बार कहाँ है,
एक सवाल हैं मेरे दिल में जिसका हल मैं रब से मांगू,
मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |

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