गुरुवार, 24 मार्च 2011

वक़्त की भी कुछ मजबूरियां हैं शायद.......

एक दास्ताँ मेरी अधूरी सी है
पास होके भी किसी से दूरी सी है,
कभी लगता है ये जिंदगी कुछ भी नहीं,
कभी लगता है जैसे ये ज़रूरी सी है |

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वक़्त की भी कुछ मजबूरियां हैं शायद,
चाहता तो वो भी है कि हमें ग़म न मिलें,
कोशिश हमेशा यही करता है कि,
हमें खुशियाँ औरों से कम न मिलें |

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दर्द से रिश्ता जाने कितना पुराना है,
जब तनहा देखता है चला आता है,
वो लम्हा जिसे हम भूल जाना चाहते हैं,
उसी लम्हे की याद ताज़ा का जाता है |

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जब भी मुस्कुराने की कोशिश की,
इस दिल से ये आवाज़ आई,
तेरा रिश्ता तो ग़मों से बहुत गहरा,
फिर होठों तक ये मुस्कान कहाँ से आई |

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एक बार फिर जिंदगी मुस्कुराई और गले लग गई,
शायद वक़्त की हकीकत इसे भी पता चल गई |

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