सहर के आलम में खोया हूँ ,होती क्या है शाम ना जानू . इक आस लिए दिल में फिरता हूँ ,होगा क्या अंजाम ना. मुझसे मेरा पता ना पूछो ,मैं तो खुद का नाम ना जानू. जो कहना है खुलके कहो मैं नज़रों का पैगाम ना जानू .... कभी कभी जब तन्हा बैठता हूँ तो मेरे मन में कुछ हलचल होने लगती है और वही हलचल मेरे शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उतर आती है ...और उसी हलचल को मैंने अपने इस ब्लॉग में डाला है. गगन गुर्जर "सारंग"
गुरुवार, 24 मार्च 2011
जज़्बात: वक़्त की भी कुछ मजबूरियां हैं शायद.......
जज़्बात: वक़्त की भी कुछ मजबूरियां हैं शायद.......: "एक दास्ताँ मेरी अधूरी सी है पास होके भी किसी से दूरी सी है, कभी लगता है ये जिंदगी कुछ भी नहीं, कभी लगता है जैसे ये ज़रूरी सी है &n..."
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें