गुरुवार, 20 जनवरी 2011

चेहरे पे कई चेहरे लगाता है आदमी,



चेहरे  पे  कई  चेहरे  लगाता  है आदमी,
रुलाता है आदमी और हंसाता   है आदमी.

है दुनिया देखलो एक सर्कस का नमूना,
जोकर के रूप में नज़र आता है आदमी.

घर को बनाता है ये खुशियों का गुल्स्तां,
मकान को श्मशान बनाता है आदमी.

करता है खुद ही जुर्म और बनता है गुनहगार,
औरों को फिर शैतान बताता है आदमी.

अपनों की कभी क़द्र ये कर पायेगा नहीं,
गैरों पे मगर जान लुटाता है आदमी.

बुज़दिल हो जिंदगी से भाग रहा है,
अब मौत को आसान बताता है आदमी.

दुनिया की चकाचौंध में होकर के ये अँधा,
खुद अपनी ही पहचान गंवाता है आदमी.

मालूम है एक दिन ढह जाना है इसको,
क्यों रेत के मकान बनाता है आदमी.

ये कर्म हैं 'सारंग' जो शैतान बना दें,
और कर्म से भगवान कहाता है आदमी.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें