सहर के आलम में खोया हूँ ,होती क्या है शाम ना जानू . इक आस लिए दिल में फिरता हूँ ,होगा क्या अंजाम ना. मुझसे मेरा पता ना पूछो ,मैं तो खुद का नाम ना जानू. जो कहना है खुलके कहो मैं नज़रों का पैगाम ना जानू .... कभी कभी जब तन्हा बैठता हूँ तो मेरे मन में कुछ हलचल होने लगती है और वही हलचल मेरे शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उतर आती है ...और उसी हलचल को मैंने अपने इस ब्लॉग में डाला है. गगन गुर्जर "सारंग"
शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011
जज़्बात: मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |
जज़्बात: मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है : "ग़म को बांटे ख़ुशी समझकर ऐसा कोई यार कहाँ है, रात - रात जग करे जो चौकी ऐसा पहरेदार कहाँ है, मै कैसी उलझन में उलझा समझ में कुछ भी आये ना, ख..."
मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |
रात - रात जग करे जो चौकी ऐसा पहरेदार कहाँ है,
मै कैसी उलझन में उलझा समझ में कुछ भी आये ना,
खड़ा हूँ घर के सामने लेकिन पूछूं घर का द्वार कहाँ हैं |
मेरी जीवन रेखा देखो इसका आखिर पार कहाँ है,
ग़म के ढेर हजारों हैं पर खुशियों का अम्बार कहाँ है,
एक सवाल हैं मेरे दिल में जिसका हल मैं रब से मांगू,
मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |
बुधवार, 16 फ़रवरी 2011
जज़्बात: मुफ्त हुए बदनाम तुम्हारे शहर में आके'
जज़्बात: मुफ्त हुए बदनाम तुम्हारे शहर में आके': "मुफ्त हुए बदनाम तुम्हारे शहर में आके' मिला एक अलग ही नाम तुम्हारे शहर में आके आये थे अपने दिल में हम ..."
मुफ्त हुए बदनाम तुम्हारे शहर में आके'
मुफ्त हुए बदनाम तुम्हारे शहर में आके'
मिला एक अलग ही नाम तुम्हारे शहर में आके |
आये थे अपने दिल में हम खुशियों का अरमान लिए,
मिल गए अश्क तमाम तुम्हारे शहर में आके |
अजनबियों की इस बस्ती में अपना ढूँढने हम निकले,
मिला न कोई मुकाम तुम्हारे शहर में आके |
वक़्त ने कैसा पलता पलड़ा कैसे तुम्हे बताएं हम,
काँप उठे अरमान तुम्हारे शहर में आके |
हम हैं 'सारंग' इक परदेशी रास्ता भूल गए थे हम,
हो गई सुबह से शाम तुम्हारे शहर में आके |
मिला एक अलग ही नाम तुम्हारे शहर में आके |
आये थे अपने दिल में हम खुशियों का अरमान लिए,
मिल गए अश्क तमाम तुम्हारे शहर में आके |
अजनबियों की इस बस्ती में अपना ढूँढने हम निकले,
मिला न कोई मुकाम तुम्हारे शहर में आके |
वक़्त ने कैसा पलता पलड़ा कैसे तुम्हे बताएं हम,
काँप उठे अरमान तुम्हारे शहर में आके |
हम हैं 'सारंग' इक परदेशी रास्ता भूल गए थे हम,
हो गई सुबह से शाम तुम्हारे शहर में आके |
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
चोरी - चोरी चुपके - चुपके वो किसे निहारा करती थी,
कभी कभी खिड़की पर आ वो ज़ुल्फ़ संवारा करती थी,
मै सोचता था करती है क्या वो रात को तन्हा छत पर आ,
इक रोज़ मुझे महशूश हुआ वो मुझे इशारा करती थी |
बस उसी रोज़ से सीने में इक धड़कन नई सुनाई दी,
उसने अपनी हर धड़कन खुद मेरे लिए पराई की,
मै टूट चुका था बुरी तरह तन्हा दुनिया की राहों में,
पर उसकी नज़रों में अपनेपन की मुझको झलक दिखाई दी|
उसने अपनी हर धड़कन खुद मेरे लिए पराई की,
मै टूट चुका था बुरी तरह तन्हा दुनिया की राहों में,
पर उसकी नज़रों में अपनेपन की मुझको झलक दिखाई दी|
हर दर्द ख़ुशी में बदल गया जब आया उसकी बाहों में,
उसने देखा तो संवर गया बिखरा सा मेरे दिल का नगर,
था जैसे जादू कोई उसकी मदमस्त निगाहों में|
जब जब वो मुझसे मिलती थी दिल की कलियाँ खिल जाती थीं,
वो दर्द भरी इस दुनिया में जीना मुझको सिखलाती थी,
वो लगती थी क्या मेरी ये तो मुझको मालूम नहीं,
लेकिन उसके साथ मुझे सारी खुशियाँ मिल जाती थीं|
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