सहर के आलम में खोया हूँ ,होती क्या है शाम ना जानू . इक आस लिए दिल में फिरता हूँ ,होगा क्या अंजाम ना. मुझसे मेरा पता ना पूछो ,मैं तो खुद का नाम ना जानू. जो कहना है खुलके कहो मैं नज़रों का पैगाम ना जानू .... कभी कभी जब तन्हा बैठता हूँ तो मेरे मन में कुछ हलचल होने लगती है और वही हलचल मेरे शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उतर आती है ...और उसी हलचल को मैंने अपने इस ब्लॉग में डाला है. गगन गुर्जर "सारंग"
शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011
जज़्बात: मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है |
जज़्बात: मैं खुलकर जब ख़ुशी मनाऊं ऐसा अब त्यौहार कहाँ है : "ग़म को बांटे ख़ुशी समझकर ऐसा कोई यार कहाँ है, रात - रात जग करे जो चौकी ऐसा पहरेदार कहाँ है, मै कैसी उलझन में उलझा समझ में कुछ भी आये ना, ख..."
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