बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

चोरी - चोरी चुपके - चुपके वो किसे निहारा करती थी,


चोरी - चोरी  चुपके - चुपके  वो  किसे  निहारा  करती थी,
कभी कभी खिड़की पर आ  वो ज़ुल्फ़ संवारा  करती थी,
मै सोचता था करती है क्या वो रात को तन्हा छत पर आ,
इक रोज़ मुझे महशूश हुआ वो मुझे इशारा करती थी |

बस उसी रोज़ से सीने में इक धड़कन नई सुनाई दी,
उसने अपनी हर धड़कन   खुद मेरे लिए पराई की,
मै टूट चुका था बुरी तरह तन्हा दुनिया की राहों में,
पर उसकी नज़रों में अपनेपन की मुझको झलक दिखाई दी|

आगे क्या चल पड़ा उसी की प्यार भरी उन  राहों  में,
हर   दर्द ख़ुशी में   बदल गया   जब आया  उसकी बाहों में,
उसने देखा तो संवर गया बिखरा सा मेरे दिल का नगर,
था जैसे जादू कोई उसकी मदमस्त निगाहों में|

जब जब वो मुझसे मिलती थी दिल की कलियाँ खिल जाती थीं,
वो दर्द भरी इस दुनिया में जीना मुझको सिखलाती थी,
वो लगती थी क्या मेरी ये तो मुझको मालूम नहीं,
लेकिन उसके साथ मुझे सारी खुशियाँ मिल जाती थीं|


निरंतर ......................

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें